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जानिए भारत के उस महान योद्धा के बारे में जिसने असम की नदियों को मुगलों के खिलाफ बनाया अभेद्य किला - NN81

 


लाचित बरफुकन महान योद्धा थे। उन्होंने नदियों को युद्ध का मैदान नहीं बल्कि दुश्मन के लिए अभेद्य दीवार में बदल दिया था। उनकी रणनीति आज भी सैन्य इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है। चलिए इस वीर सेनानायक के बारे में जानते हैं।

Lachit Diwas: भारतीय इतिहास के वीर सेनानायकों में लाचित बरफुकन का नाम शानदार अक्षरों में दर्ज है। वह केवल असम के एक सैन्य नेता नहीं थे, बल्कि अहोम साम्राज्य की उन महान योद्धाओं में से एक थे जिन्होंने मुगल साम्राज्य की उत्तर-पूर्व में बढ़ती शक्ति को रोक दिया था। 17वीं शताब्दी में जब मुगल भारत के अधिकांश हिस्सों पर नियंत्रण स्थापित कर चुके थे, उस समय असम का अहोम साम्राज्य मुगलों के लिए सबसे कठिन चुनौती बना रहा। इस चुनौती का नेतृत्व करने वाले सेनापति थे लाचित बरफुकन, जिनकी रणनीति, बुद्धिमत्ता, युद्ध कौशल और दृढ़ संकल्प ने असम की नदियों को ही 'अभेद्य किले' में बदल दिया था। चलिए जानते हैं कि लाचित बरफुकन कौन थे और कैसे उन्होंने ब्रह्मपुत्र सहित असम की नदियों को मुगलों के काल बना बना दिया था।

लाचित बरफुकन कौन थे?

लाचित बरफुकन का जन्म 24 नवंबर 1622 को हुआ था। उनके पिता मामाई तामुली बोरबरुआ अहोम साम्राज्य के एक सम्मानित प्रशासक थे। लाचित अपने बचपन से ही श्रेष्ठ घुड़सवार, तीरंदाज, रणनीतिकार और योद्धा थे। अहोम राजाओं की सेवा में वो पहले शाही अस्तबल के प्रभारी बने, फिर धीरे-धीरे उच्च पदों तक पहुंचे। उनकी प्रतिभा और नेतृत्व क्षमता को देखते हुए राजा चक्रध्वज सिंहा ने उन्हें 'बरफुकन' अर्थात पूर्वी मोर्चे का सेनापति नियुक्त किया। उनका सबसे बड़ा योगदान 1671 में हुई सरायघाट की लड़ाई में दिखाई देता है, जिसमें उन्होंने मुगल सेना को करारी शिकस्त दी थी।

नदियों का किले की तरह किया इस्तेमाल

असम एक नदी प्रधान क्षेत्र है। ब्रह्मपुत्र नदी अपने चौड़े, तेज बहाव वाले जलमार्गों, टापुओं, भंवरों और कई जलधाराओं के कारण किसी भी बाहरी सेना के लिए चुनौती से कम नहीं है। लेकिन, सिर्फ प्राकृतिक संरचना से युद्ध नहीं जीते जाते, उसके लिए बुद्धि, रणनीति और दूरदर्शिता की जरूरत होती है, और यही लाचित की असली ताकत थी। उन्होंने नदियों को सिर्फ एक प्राकृतिक बाधा नहीं माना, बल्कि उन्हें एक किले की तरह इस्तेमाल किया।

मुगलों ने भेजी बड़ी सेना

1671 में मुगलों ने असम पर कब्जा करने के लिए विशाल सेना भेजी। इस अभियान का नेतृत्व राजा राम सिंह कर रहे थे, जिनके साथ भारी तोपखाना और विशाल पैदल सेना शामिल थी। मुगलों के पास संख्या और संसाधनों की शक्ति थी, लेकिन लाचित के पास थी भूमि और नदी से जुड़ी रणनीति। ये ऐसी रणनीति थी जिसमें नदियों को युद्ध के प्रमुख मैदान के रूप में देखा गया।

लाचित ने नदी को ध्यान में रखकर बनाई रणनीति

मुगल युद्धकला का बड़ा हिस्सा मैदानों पर आधारित था लेकिन असम में उन्हें पानी से लड़ना पड़ा। लाचित बरफुकन ने ब्रह्मपुत्र का इस्तेमाल बेहद चतुराई से किया। लाचित ने नदी के किनारे प्राकृतिक ऊंचाइयों पर चौकियां बनाई। किलेबंदी को जंगलों और बांसों से मजबूत किया। दलदली भूमि को जाल की तरह उपयोग किया। लाचित की चाल में मुगलों की भारी सेना फंसने लगी जबकि अहोम सैनिक हल्के हथियारों के साथ तेजी से हमला कर गायब हो जाते।

लाचित ने बनावाई खास नौकाएं

अहोम साम्राज्य हमेशा से नदी-युद्ध में माहिर रहा था। लाचित ने इसी का परिचय देते हुए तेज और हल्की नौकाओं की विशेष टुकड़ी बनाई। नावों को खास युद्ध के लिए तैयार किया गया। पानी में लड़ने वाले खास योद्धाओं के शामिल किया। इन नौकाओं की गति मुगलों की भारी नौकाओं की तुलना में कहीं अधिक थी। ब्रह्मपुत्र नदी कई स्थानों पर तीखे मोड़ बनाती है। लाचित ने इन मोड़ों पर नौकाओं को इस तरह से तैनात किया कि वो नजर ना आएं। इतना ही नहीं अचानक हमलों की रणनीति अपनाई साथ ही रात के समय लाचित की सेना ने 'गुरिल्ला नदी युद्ध' किया, जब भी मुगल बेड़ा आगे बढ़ता, उन्हें हर मोड़ पर घातक हमला मिलता।

लाचित ने लिए कठोर निर्णय

लाचित ने पानी में लकड़ियों, बांसों और भारी जंजीरों के जाल बनाए, जिससे मुगलों के बड़े जहाज फंसने लगे। इन अवरोधों के बीच से केवल अहोम की छोटी और तीव्र नावें गुजर सकती थीं। इस बीच नदी के तटों पर छिपे तीरंदाज और भालाधारी मुगल सेना को आगे बढ़ने नहीं देते थे। असम के तीरंदाज समय, दूरी और दिशा के गणित में माहिर थे। एक के बाद एक तीरों की बौछार मुगलों को हिलने नहीं देती थी। इस बीच एक प्रसिद्ध घटना लाचित के चरित्र का प्रमाण है। एक बार एक किले की दीवार बनाने के काम में उनके मामा की लापरवाही के कारण कार्य ठप हो गया। लाचित ने कठोर निर्णय लेते हुए अपने मामा को दंड दे दिया। उन्होंने कहा, “राज्य पहले है, रिश्ते बाद में।” इस घटना ने उनके सैनिकों में अनुशासन और समर्पण की अग्नि जला दी।

सरायघाट की लड़ाई के बारे में जानें

1671 में सरायघाट की लड़ाई ऐसा युद्ध था जिसने लाचित को अमर कर दिया। मुगलों ने भारी सेना के साथ नदी के रास्ते हमला किया। लाचित उस समय गंभीर रूप से बीमार थे, लेकिन जब उन्होंने सुना कि उनकी सेना बिना नेतृत्व के पीछे हटने लगी है, तो वो उठ खड़े हुए। बीमार शरीर में भी वो छोटी नाव पर सवार हो गए और सैनिकों से बोले, “यदि मैं पीछे हटा, तो देश की रक्षा कौन करेगा?” उनका यह साहस सेना में ज्वार की तरह उमड़ पड़ा। असम की छोटी मगर तेज नावों, छिपे हुए तीरंदाजों और नदी अवरोधों ने मुगलों को चारों ओर से घेर लिया। अंत में राम सिंह को पीछे हटना पड़ा और मुगल असम पर नियंत्रण स्थापित करने में पूरी तरह विफल रहे।

लाचित बरफुकन की विरासत

आज भी असम और पूरे भारत में लाचित बरफुकन का सम्मान वीरता और राष्ट्रभक्ति के प्रतीक के रूप में किया जाता है। भारतीय सेना में हर साल “लाचित बरफुकन” सर्वश्रेष्ठ कैडेट को दी जाती है। हर साल 24 नवंबर को “लाचित दिवस” मनाया जाता है। उन्होंने दिखाया कि सही रणनीति, भूगोल का ज्ञान और अदम्य इच्छाशक्ति किसी भी बड़ी शक्ति को पराजित कर सकती है। आज भी लाचित भारत के महानतम सैन्य नायकों में गिने जाते हैं।

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